ऐसे बढ़े कि मंज़िलें रस्ते में बिछ गईं
ऐसे गए कि फिर न कभी लौटना हुआ
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बंधन
मैं और तू
इस गिर्या-ए-पैहम की अज़िय्यत से बचा दे
जबीं-ए-संग पे लिक्खा मिरा फ़साना गया
चुटकी भर रौशनी
ज़ेहन-ए-रसा की गिर्हें मगर खोलने लगे
थकन
बे-सदा दम-ब-ख़ुद फ़ज़ा से डर
तुम्हें ख़बर भी न मिली और हम शिकस्ता-हाल
समेटता रहा ख़ुद को मैं उम्र-भर लेकिन
कहने को चंद गाम था ये अरसा-ए-हयात
ज़ात के रोग में