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तर्ग़ीब - वज़ीर आग़ा कविता - Darsaal

तर्ग़ीब

कभी तुम जो आओ

तो मैं सुब्ह के छुटपुटे में

तुम्हें सब से ऊँची इमारत की छत से दिखाऊँ

दरख़्तों के इक सब्ज़ कम्बल में लिपटा हुआ शहर सारा

कलस और मेहराब के दरमियाँ उड़ने वाले मुक़द्दस कबूतर

बहुत दूर चाँदी के इक तार ऐसी नदी

इस से आगे जरी कोहसारों का इक सुरमई सिलसिला

कभी तुम जो आओ

तो मैं एक तपती हुई दोपहर में

तुम्हें अपने इस आहनी शहर में ले चलूँ

एक लोहे के झूले में तुम को बिठाऊँ

तुम्हें सब से ऊँची इमारत की छत से दिखाऊँ

मिलों के सियह रंग नथनों से बहता धुआँ

तंग गलियों से रिसती हुई नालियाँ

जो मसामों की सूरत

मकानों के जिस्मों से गाड़े पसीने को ख़ारिज करें

खाँसती होंकती शाहराहें

हिरासाँ ,ग़सीली थकी टैक्सीयाँ

पुराने गिरांडिएल पेड़ों के कटने का मंज़र

शिकस्ता इमारात की हड्डियों पर

मुड़ी चोंच वाले सियह-फ़ाम बुलडोज़र्रों के झपटने का वहशी समाँ

कभी तुम जो आओ

तो मैं तुम को पलकों पर अपनी बिठाऊँ

तुम्हें अपने सीने के अंदर का मंज़र दिखाऊँ

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In Hindi By Famous Poet Wazir Agha. is written by Wazir Agha. Complete Poem in Hindi by Wazir Agha. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.