भूत
मिरे हुओं से डरो नहीं
ये कहा था तुम ने
जो मर गए
वो ज़मीं के अंदर उतर गए
इन मरे हुओं की भटकती फिरती
ख़ुशी ग़मी के अज़ाब सहती
नहीफ़ रूहों से डरना कैसा
कहा था तुम ने
नहीं
मैं डरता नहीं हूँ उन से
भटकती फिरती
ज़मीं का चक्कर लगाती रूहों से ख़ौफ़ कैसा
जो ख़ुद पतंगे के कर्ब में मुब्तला हों उन से
किसी को ख़तरा नहीं है कोई
मगर मैं डरता हूँ उन के ढाँचों से
जो ज़मीन में उतर गए थे
ज़मीं के पाटों में पिस गए थे
वो ख़ुश्क ढाँचे कि आज आसेब बन गए हैं
ज़मीं के अंधे कुएँ से बाहर निकल पड़े हैं
नहीं ये रूहें नहीं हैं भाई
ये सब धुएँ के कसीफ़ हल्क़े हैं
भूत हैं उन मरे हुओं के
जो सब्ज़ धरती के गर्द चक्कर लगा रहे हैं
जो गर्म बोझल मुहीब साँसों
की परछाइयों से
ज़मीं का पण्डा जला रहे हैं
दिया ज़मीं का बुझा रहे हैं
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