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ज़ेहन-ए-रसा की गिर्हें मगर खोलने लगे - वज़ीर आग़ा कविता - Darsaal

ज़ेहन-ए-रसा की गिर्हें मगर खोलने लगे

ज़ेहन-ए-रसा की गिर्हें मगर खोलने लगे

फिर यूँ हुआ कि लोग हमें तौलने लगे

आहिस्ता बात कर कि हवा तेज़ है बहुत

ऐसा न हो कि सारा नगर बोलने लगे

उम्र-ए-रवाँ को पार किया तुम ने और हम

रस्सी के पुल पे पाँव रखा डोलने लगे

दस्तक हवा ही दे कि ये बंदिश तमाम हो

सूने घरों में कोई तो रस घोलने लगे

मैं बन गया गुहर तो मिरा इस में दोश क्या

बे-वज्ह मुझ को ख़ाक में तुम रोलने लगे

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In Hindi By Famous Poet Wazir Agha. is written by Wazir Agha. Complete Poem in Hindi by Wazir Agha. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.