मंज़र था राख और तबीअत उदास थी
मंज़र था राख और तबीअत उदास थी
हर-चंद तेरी याद मिरे आस पास थी
मीलों थी इक झुलसती हुई दोपहर की क़ाश
सीने में बंद सैंकड़ों सदियों की प्यास थी
उट्ठे नहा के शोलों में अपने तो ये खुला
सारे जहाँ में फैली हुई तेरी बास थी
कैसे कहूँ कि मैं ने कहाँ का सफ़र किया
आकाश बे-चराग़ ज़मीं बे-लिबास थी
अब धूल में अटी हुई राहों पे है सफ़र
वो दिन गए कि पाँव-तले नर्म घास थी
(684) Peoples Rate This