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इस गिर्या-ए-पैहम की अज़िय्यत से बचा दे - वज़ीर आग़ा कविता - Darsaal

इस गिर्या-ए-पैहम की अज़िय्यत से बचा दे

इस गिर्या-ए-पैहम की अज़िय्यत से बचा दे

आवाज़-ए-जरस अब के बरस मुझ को हँसा दे

या अब्र-ए-करम बन के बरस ख़ुश्क ज़मीं पर

या प्यास के सहरा में मुझे जीना सिखा दे

मैं भी तिरी ख़ुशबू हूँ मिरी सम्त भी तू देख

मोहलत तुझे गर सिलसिला-ए-मौज-ए-सबा दे

सूरज ने मुझे बर्फ़ किया है तो तुझे क्या

किया तुझ को अगर बर्फ़ मुझे आग लगा दे

ऐसा भी नहीं है कि फ़क़त ख़ाक-नशीं हूँ

आ जाए हवा आ के मिरी ख़ाक उड़ा दे

ख़ुशबू की तरह दर-बदरी ख़ू हो मिरी गर

है शक तो मुझे मेरी निगाहों में गिरा दे

काँटे की जराहत से भी मर जाते हैं कुछ लोग

रख हौसला इतनी भी न अब ख़ुद को सज़ा दे

या रब तिरी रहमत का तलबगार है ये भी

थोड़ी सी मिरे शहर को भी आब-ओ-हवा दे

क्या तेरा बिगड़ता है अगर चाँदनी शब तू

इक बार मुझे फिर मेरी आवाज़ सुना दे

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In Hindi By Famous Poet Wazir Agha. is written by Wazir Agha. Complete Poem in Hindi by Wazir Agha. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.