कहते हैं सर-ए-राह मुनासिब नहीं मिलना
कहते हैं सर-ए-राह मुनासिब नहीं मिलना
क्या ख़ूब कि अब होगी कहीं और मुलाक़ात
हल्की सी ख़लिश दिल में निगाहों में उदासी
शायद यूँही होती है मोहब्बत की शुरूआत
टूटे हुए तारे में नहीं कोई तजल्ली
पलकों से गिरा अश्क तो क्या रह गई औक़ात
हम ने भी उठाई है बहुत आज ख़राबी
'वासिफ़' को बुलाओ कि चलें सू-ए-ख़राबात
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