Ghazals of Wasif Dehlvi
नाम | वासिफ़ देहलवी |
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अंग्रेज़ी नाम | Wasif Dehlvi |
जन्म की तारीख | 1910 |
जन्म स्थान | Delhi |
ज़र्रा हरीफ़-ए-मेहर दरख़्शाँ है आज कल
वो जिस की जुस्तुजू-ए-दीद में पथरा गईं आँखें
वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे
वो जल्वा तूर पर जो दिखाया न जा सका
तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है
नहीं मालूम कितने हो चुके हैं इम्तिहाँ अब तक
किसी के इश्क़ का ये मुस्तक़िल आज़ार क्या कहना
खुलने ही लगे उन पर असरार-ए-शबाब आख़िर
कहते हैं सर-ए-राह मुनासिब नहीं मिलना
कभी दर्द-आश्ना तेरा भी क़ल्ब शादमाँ होगा
इज़्ज़त उन्हें मिली वही आख़िर बड़े रहे
हरीम-ए-नाज़ को हम ग़ैर की महफ़िल नहीं कहते
हम-सफ़र थम तो सही दिल को सँभालूँ तो चलूँ
बुझते हुए चराग़ फ़रोज़ाँ करेंगे हम
बयाँ ऐ हम-नशीं ग़म की हिकायत और हो जाती
अगर ख़ू-ए-तहम्मुल हो तो कोई ग़म नहीं होता