फ़लक बेदाद करता है जो जौर ईजाद करते हैं
ग़ज़ब शागिर्द ढाता है सितम उस्ताद करते हैं
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वहाँ अब जा के देखें हम से क्या इरशाद करते हैं
आसमानों पर भी हैं चर्चे हुस्न-ए-आलमगीर के
मौत आई मुझे कूचे में तिरे जाने से
उसे बहिश्त के ज़िंदाँ में भेज देना तुम
फूल अपने वस्फ़ सुनते हैं उस ख़ुश-नसीब से
शरीर तेरी तरह आँख भी तिरी होगी
कम सितम करने में क़ातिल से नहीं दिल मेरा
भर दीं शबाब ने ये उन आँखों में शोख़ियाँ
पत्थर नज़र थी वाइ'ज़-ए-ख़ाना-ख़राब की
जुर्म इतने कर चला हूँ हश्र तक लिक्खेंगे रोज़
हम ने उस शोख़ की रानाई क़ामत देखी