आसमानों पर भी हैं चर्चे हुस्न-ए-आलमगीर के
चाँद ने भी रंग उड़ाए चाँद सी तस्वीर के
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पत्थर नज़र थी वाइ'ज़-ए-ख़ाना-ख़राब की
जाए आशिक़ की बला हश्र में क्या रक्खा है
फूल अपने वस्फ़ सुनते हैं उस ख़ुश-नसीब से
जुर्म इतने कर चला हूँ हश्र तक लिक्खेंगे रोज़
नज़्अ' में प्यार से क्यूँ पूछते हो तुम मुझ को
उसे बहिश्त के ज़िंदाँ में भेज देना तुम
वहाँ अब जा के देखें हम से क्या इरशाद करते हैं
फ़लक बेदाद करता है जो जौर ईजाद करते हैं
भर दीं शबाब ने ये उन आँखों में शोख़ियाँ
मौत आई मुझे कूचे में तिरे जाने से
शरीर तेरी तरह आँख भी तिरी होगी