क़तरे गिरे जो कुछ अरक़-ए-इंफ़िआ'ल के
क़तरे गिरे जो कुछ अरक़-ए-इंफ़िआ'ल के
दरिया बहा दिए करम-ए-ज़ुल-जलाल के
पहलू से दिल को ले गए वो देख-भाल के
यूसुफ़ को ले चले हैं कुएँ से निकाल के
क्यूँ मिट्टी देने आए जो वा'दा था ग़ैर से
जाते कहाँ हो आँख में तुम ख़ाक डाल के
लबरेज़ मैं ने मय से न देखा उसे कभी
फूटे नसीब हैं मिरे जाम-ए-सिफ़ाल के
है मुझ में और कोहकन-ओ-क़ैस में ये फ़र्क़
मैं वहशी-ए-अज़ल हूँ ये दीवाने हाल के
हो तूर पर उरूज उन्हें तू हो ग़र्क़-ए-नील
फ़िरऔन ये मिला तुझे मूसा को पाल के
कहती है बढ़ के ज़ुल्फ़ कमर से दम-ए-ख़िराम
रख दूँगी मैं कमर के अभी बल निकाल के
रखेंगी अब कहीं का न पीरी की लग़्ज़िशें
रखना क़दम 'वसीम' बहुत ही सँभाल के
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