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कार्ल मार्क्स - वामिक़ जौनपुरी कविता - Darsaal

कार्ल मार्क्स

मार्क्स के इल्म ओ फ़तानत का नहीं कोई जवाब

कौन उस के दर्क से होता नहीं है फ़ैज़-याब

उस की दानाई का हासिल नाख़ुन-ए-उक़्दा-कुशा

ताबनाकी-ए-ज़मीर-ओ-ज़ीरकी का आफ़्ताब

चाहने वालों का उस की ज़िक्र ही क्या कीजिए

उस के दुश्मन भी सिरहाने रखते हैं उस की किताब

माद्दी तारीख़-ए-आलम जिस की तालीफ़-ए-अज़ीम

तास कैपिटाल है या ज़ीस्त का लुब्ब-ए-लुबाब

पढ़ के जिस के हो गईं हुश्यार अक़वाम-ए-ग़ुलाम

इश्तिराकी फ़ल्सफ़ा का खुल गया हर दिल में बाब

कितने दोज़ख़ उस के इक मंशूर से जन्नत बने

कितने सहराओं को जिस ने कर दिया शहर-ए-गुलाब

मार्क्स ने साइंस ओ इंसाँ को किया है हम-कनार

ज़ेहन को बख़्शा शुऊर-ए-ज़िंदगानी का निसाब

उस की बींनिश उस की वज्दानी-निगाह-ए-हक़-शनास

कर गई जो चेहरा-ए-इफ़्लास-ए-ज़र को बे-नक़ाब

'ग़सब'-ए-उजरत को दिया 'सरमाया' का जिस ने लक़ब

बे-हिसाब उस की बसीरत उस की मंतिक़ ला-जवाब

आफ़्ताब ताज़ा की उस ने बशारत दी हमें

उस की हर पेशन-गोई है बरफ़्गंदा नक़ाब

कोई क़ुव्वत उस की सद्द-ए-राह बन सकती नहीं

वक़्त का फ़रमान जब आता है बन कर इंक़िलाब

अहल-ए-दानिश का रजज़ और सीना-ए-दहक़ाँ की ढाल

लश्कर मज़दूर के हैं हम-सफ़ीर ओ हम-रिकाब

काटती है सेहर-ए-सुल्तानी को जब मूसा की ज़र्ब

सतवत-ए-फ़िरऔन हो जाती है अज़ ख़ुद ग़र्क़-ए-आब

आज की फ़िरऔनियत भी कुछ इसी अंदाज़ से

रफ़्ता रफ़्ता होती जाएगी शिकार-ए-इंक़िलाब

लड़ रहा है जंग आख़िर कीसा-ए-सरमाया-दार

जौहरी हथियार से करता नहीं जो इज्तिनाब

अपने मुस्तक़बिल से ताग़ूती तमद्दुन को है यास

दीदनी है दुश्मन-ए-इंसानियत का इज़्तिराब

हज़रत-ए-इक़बाल का इब्लीस-ए-कोचक ख़ौफ़ से

लरज़ा-बर-अंदाम यूँ शैताँ से करता है ख़िताब

पंडित ओ मुल्ला ओ राहिब बे-ज़रर ठहरे मगर

टूटने वाला है तुझ पर इक यहूदी का इताब

वो कलीम-ए-बे-तजल्ली वो मसीह-ए-बे-सलीब

नीस्त पैग़म्बर ओ लेकिन दर बग़ल दारद किताब

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In Hindi By Famous Poet Wamiq Jaunpuri. is written by Wamiq Jaunpuri. Complete Poem in Hindi by Wamiq Jaunpuri. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.