साज़-ए-हस्ती में कुछ सदा ही नहीं
एक महशर है जो बपा ही नहीं
किस क़दर है गदागरों का हुजूम
तेरे कूचे में रास्ता ही नहीं
रहबरी का उन्हें भी सौदा है
राह में जिन का नक़्श-ए-पा ही नहीं
कह रहा हूँ ज़बाँ न खुलवाओ
बात के ज़ख़्म की दवा ही नहीं
जो हँसा वो हँसा गया 'वामिक़'
ये मक़ौला ग़लत हुआ ही नहीं