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प्यार का यूँ दस्तूर निभाना पड़ता है - वलीउल्लाह वली कविता - Darsaal

प्यार का यूँ दस्तूर निभाना पड़ता है

प्यार का यूँ दस्तूर निभाना पड़ता है

क़ातिल को सीने से लगाना पड़ता है

दुनिया को पुर-नूर बनाने की ख़ातिर

अपने घर को आग लगाना पड़ता है

बुत-ख़ाने यूँही ता'मीर नहीं होते

पत्थर को भगवान बनाना पड़ता है

दुनिया-दारी की ख़ातिर इस दुनिया का

जाने क्या क्या नाज़ उठाना पड़ता है

अपने क़ातिल की मा'सूम निगाहों से

दिल का हर इक ज़ख़्म छुपाना पड़ता है

ऐसा भी वक़्त आता है सरदारी पर

अँगारों को फूल बनाना पड़ता है

ऐसा भी होता है हिज्र की रातों में

दीवारों को हाल सुनाना पड़ता है

जिन गलियों में क़त्ल हुए अरमान 'वली'

उन गलियों में आना जाना पड़ता है

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