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इमारत हो कि ग़ुर्बत बोलती है - वलीउल्लाह वली कविता - Darsaal

इमारत हो कि ग़ुर्बत बोलती है

इमारत हो कि ग़ुर्बत बोलती है

ब-हर-सूरत शराफ़त बोलती है

वहाँ बाज़ार का होता है मंज़र

जहाँ घर की ज़रूरत बोलती है

ज़बाँ ख़ामोश ही रहती है लेकिन

मिरे चेहरे की रंगत बोलती है

ब-ज़ाहिर गुफ़्तुगू है मुख़्लिसाना

मगर दिल में कुदूरत बोलती है

वो पत्थर मोम बन जाए न कैसे

कि सर चढ़ के मोहब्बत बोलती है

ज़बान-ए-इल्म पर ताले पड़े हैं

ब-ज़ो'म-ए-ख़ुद जहालत बोलती है

ज़बानें काट दी जाती हैं फिर भी

रग-ओ-पै से मोहब्बत बोलती है

'वली' की ज़िंदगी आईना-सूरत

सदाक़त ही सदाक़त बोलती है

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