उस बुत ने गुलाबी जो उठा मुँह से लगाई
उस बुत ने गुलाबी जो उठा मुँह से लगाई
शीशे में अजब आन से झमके थी ख़ुदाई
आलम में नशे के शब-ए-महताब ने तेरे
ख़ुर्शीद से मुखड़े ने तिलिस्मात दिखाई
गो ग़ैर से मिलने की क़सम खाते हो प्यारे
छुपती नहीं वो बात जो हो दिल से बनाई
वल्लाह हमें इश्क़ की सब भूल हुई चाल
काफ़िर तिरी रफ़्तार ने फिर याद दिलाई
हर दम तो भरा शीशा झुकाता है नशे में
डरता हूँ कि तेरी न मुड़क जाए कलाई
आईना नुमू-पोश हुआ इश्क़ में तेरे
चार अब्रुओं की ले के फ़क़ीराना सफ़ाई
हम झूट कहें तो न हो दीदार ख़ुदा का
है रोज़-ए-क़यामत तिरी इक शब की जुदाई
आशिक़ को 'मुहिब' सल्तनत-ए-हर-दो-जहाँ है
गर यार के कूचे की मयस्सर हो गदाई
(611) Peoples Rate This