शब न ये सर्दी से यख़-बस्ता ज़मीं हर तर्फ़ है
शब न ये सर्दी से यख़-बस्ता ज़मीं हर तर्फ़ है
मह पुकारे है फ़लक-परवरदगी तो बर्फ़ है
शाह-ए-गुल का हुक्म सय्यारों के ये है बाग़ में
जो न पी कर आए मय नौकर नहीं बरतर्फ़ है
सुर्ख़ है रूमाल-ए-शाली उस के तहतुल-जंग तक
मुसहफ़ रुख़्सार पर या जदवल-ए-शंगर्फ़ है
नौ-ख़तों के दिल में जुज़ मश्क़-ए-सितम तर्ज़-ए-वफ़ा
यकसर-ए-मू हो सके कुर्सी-नशीं क्या हर्फ़ है
दर्स-ए-इल्म-ए-इश्क़ से वाक़िफ़ नहीं मुतलक़ फ़क़ीह
नहव ही में महव है या सर्फ़ ही में सर्फ़ है
मू से है बारीक शेर-ओ-शायरी के दरमियाँ
मा'नी-ए-मिस्रा-ए-क़ामत क्या क़यामत ज़र्फ है
ज़ाहिद-ए-ख़ुश्क-ओ-ख़ुनुक से कब हो सोहबत उन की गर्म
आतिश-ए-तर से 'मुहिब' जिन का लबालब ज़र्फ़ है
(981) Peoples Rate This