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मा'रके में इश्क़ के सर से गुज़रने से न डर - वलीउल्लाह मुहिब कविता - Darsaal

मा'रके में इश्क़ के सर से गुज़रने से न डर

मा'रके में इश्क़ के सर से गुज़रने से न डर

गर उठाता है तो ये जोखों तो मरने से न डर

जान-ए-मन तेरा गरेबाँ-गीर हो सकता है कौन

आशिक़ों के ख़ूँ में तू दामन के भरने से न डर

ज़ाहिदा तू सोहबत-ए-रिंदाँ में आया है तो सुन

तर्क गाली का न कर पगड़ी उतरने से न डर

गर सुबुक-बारी की ख़्वाहिश है तो उस क़ातिल से फिर

ज़िंदगी इक बोझ है सर का उतरने से न डर

उस के हर हल्क़े में हैं दिल से परेशानों के साथ

ये न कह हमदम कि ज़ुल्फ़ उस की बिखरने से न डर

उस के कूचे में क़दम रखते हुए कटता है सर

सर को रख ले हाथ पर और पाँव धरने से न डर

दिल दिया तू ने 'मुहिब' अब ख़ौफ़ है किस चीज़ का

दो-दो बातें ज़ेहन से जिस वक़्त करने से न डर

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In Hindi By Famous Poet Waliullah Muhib. is written by Waliullah Muhib. Complete Poem in Hindi by Waliullah Muhib. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.