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मैं जीते-जी तलक रहूँ मरहून आप का - वलीउल्लाह मुहिब कविता - Darsaal

मैं जीते-जी तलक रहूँ मरहून आप का

मैं जीते-जी तलक रहूँ मरहून आप का

गर आज क़स्द कीजिए मुझ से मिलाप का

मैं ये समझ के दौड़ूँ हूँ आया वो शहसवार

खटका सुनूँ हूँ जब किसी घोड़े की टॉप का

तुम गाओ अपने राग को उस पास वाइ'ज़ो

मुश्ताक़ जो गधा हो तुम्हारे अलाप का

गो दुख़्त-ए-रज़ से मिलने में बद ठहरे मोहतसिब

देना नहीं धराने में हम उस के बाप का

दुख में नहीं है कोई किसू का शरीक-ए-हाल

याँ खेल मच रहा है अजब आप-धाप का

थपवाईं उन की माटी की ईंटें फ़लक ने हैफ़

था शोर जिन के महलों में तबले की थाप का

औराक़-ए-गंजिफ़ा कहो अस्नाफ़-ए-ख़ल्क़ को

है शौक़ उन के दिल में सदा टीप-टाप का

किस तरह हम से बोसे का वा'दा करे वो शोख़

नजरी रक़ीब से है डरा मुँह की भाप का

कीजो 'मुहिब' निगाह ये छापा है और ही

गंदा करे है दिल को नगीं उस की छाप का

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In Hindi By Famous Poet Waliullah Muhib. is written by Waliullah Muhib. Complete Poem in Hindi by Waliullah Muhib. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.