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मय-ए-गुल-गूँ के जो शीशे में परी रहती है - वलीउल्लाह मुहिब कविता - Darsaal

मय-ए-गुल-गूँ के जो शीशे में परी रहती है

मय-ए-गुल-गूँ के जो शीशे में परी रहती है

चश्म-मस्तों में अजब जल्वागरी रहती है

है फंदीत एक वो बाँका कि लड़े जब तक आँख

मर्दुमक पंजा-ए-मिज़्गाँ में भरी रहती है

बाग़ में जब वो गुल-ए-ताज़ा-बहार आता है

बू-ए-गुल फिर तो हवा पर ही धरी रहती है

नाला बुलबुल है चमन-ज़ार है दिल दाग़ों से

आह ता-सुब्ह नसीम-ए-सहरी रहती है

मोहतसिब दुख़्तर-ए-रज़ हम से जो तू आज मिलाए

बज़्म-ए-मस्तों में तिरी मोतबरी रहती है

सल्तनत फ़क़्र की जिन को ही नहीं पेश-ए-निगाह

कौड़ी और अशरफ़ी यकसाँ-नज़री रहती है

लब-ओ-चश्म अपने हैं इक आलम-ए-ख़ुश्की-ओ-तरी

इश्क़ में सल्तनत-ए-बहर-ओ-बरी रहती है

अश्क-बारी से ग़म-ओ-दर्द की खेती-बाड़ी

लहलही सी नज़र आती है हरी रहती है

रू तिरा कुहल बसर हो न उसे तो बे-वज्ह

चश्म में आइने के बे-बसरी रहती है

आबरू पाती थी ख़ुश्की ब-कमाल इस्तिग़्ना

आब-ए-दरिया के न होने में तरी रहती है

तोशा-ख़ाना है तिरा गुम्बद-ए-गर्दूं जिस में

मेहर-ओ-मह से तिरी दस्तार ज़री रहती है

है जो अग़्यार के हर दम की तिरी आमद-ओ-शुद

जिस्म में जान हमारी सफ़री रहती है

दीन-ओ-दिल बिकते हैं होते हैं ग़म-ए-दर्द ख़रीद

तिरे कूचे में लगी इक गुज़री रहती है

बे-निशाँ ज़ख़्म से उस तीर-ए-निगह के दिल में

दर्द रहता है न पैकाँ न सरी रहती है

दिल को भी डूबती क्यूँकर न नज़र आए 'मुहिब'

कश्ती-ए-चश्म तो पानी से भरी रहती है

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In Hindi By Famous Poet Waliullah Muhib. is written by Waliullah Muhib. Complete Poem in Hindi by Waliullah Muhib. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.