Ghazals of Waliullah Muhib
नाम | वलीउल्लाह मुहिब |
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अंग्रेज़ी नाम | Waliullah Muhib |
यूँ घर से मोहब्बत के क्या भाग चले जाना
वाँ जो कुछ का'बे में असरार है अल्लाह अल्लाह
वहीं जी उठते हैं मुर्दे ये क्या ठोकर से छूना है
उस बुत ने गुलाबी जो उठा मुँह से लगाई
उधर वो बे-मुरव्वत बेवफ़ा बे-रहम क़ातिल है
तुम जानते हो किस लिए वो मुझ से गया लड़
तरवार खींच हम को दिखाते हो जब न तब
शोरिश से चश्म-ए-तर की ज़ि-बस ग़र्क़-ए-आब हूँ
शब-ए-फ़िराक़ न काटे कटे है क्या कीजे
शब न ये सर्दी से यख़-बस्ता ज़मीं हर तर्फ़ है
साथ ग़ैरों के है सदा गट-पट
सनम ने जब लब-ए-गौहर-फ़शान खोल दिए
राएगाँ औक़ात खो कर हैफ़ खाना है अबस
पहले सफ़-ए-उश्शाक़ में मेरा ही लहू चाट
पहचाने तू हर-दम वही हर आन वही है
नहीं दुनिया में सिवा ख़ार-ओ-ख़स-ए-कूचा-ए-दोस्त
मोहब्बत से तरीक़-ए-दोस्ती से चाह से माँगो
मिलती है उसे गौहर-ए-शब-ताब की मीरास
मिल उस परी से क्या क्या हुआ दिल
मेरी ख़बर न लेना ऐ यार है तअ'ज्जुब
मिरे दिल में हिज्र के बाब हैं तुझे अब तलक वही नाज़ है
मा'रके में इश्क़ के सर से गुज़रने से न डर
मैं जीते-जी तलक रहूँ मरहून आप का
मय-ए-गुल-गूँ के जो शीशे में परी रहती है
लाला-रू तुम ग़ैर के पाले पड़े
किया बाग़-ए-जहाँ में नाम उन का सर्व कह कह कर
ख़ाना-ए-दिल का जो तवाइफ़ है
काफ़िर हुए सनम हम दीं-दार तेरी ख़ातिर
जो मरीज़ इश्क़ के हैं उन को शिफ़ा है कि नहीं
जिसे गर्म-इख़्तिलाती की लगा दे दिल में तू आतिश