वलीउल्लाह मुहिब कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का वलीउल्लाह मुहिब
नाम | वलीउल्लाह मुहिब |
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अंग्रेज़ी नाम | Waliullah Muhib |
ज़ाहिदा तू सोहबत-ए-रिंदाँ में आया है तो सुन
ये जूँ जूँ वा'दे के दिन रात पड़ते जाते हैं
ये दाढ़ी मोहतसिब ने दुख़्त-ए-रज़ के फाड़ खाने को
ये बंदा हो या तुम हो वाँ ग़ैर न हो कोई
वो जो लैला है मिरे दिल में सुने उस का जो शोर
उस के कूचे ही में आ निकलूँ हूँ जाऊँ जिस तरफ़
तुम गाओ अपने राग को उस पास वाइ'ज़ो
तिरे कलाम ने कैसा असर किया वाइ'ज़
तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ज़ेर-ए-आसमाँ की समेट
सुख़न जिन के कि सूरत जूँ गुहर है बहर-ए-मअ'नी में
शोर रखते हैं जहाँ में जिस क़दर सब्ज़ान-ए-हिंद
शैख़ कहते हैं मुझे दैर न जा काबा चल
शैख़ है तुझ को ही इंकार सनम मेरे से
साक़ी हमें क़सम है तिरी चश्म-ए-मस्त की
रक़ीब जम के ये बैठा कि हम उठे नाचार
रहीम ओ राम की सुमरन है शैख़ ओ हिन्दू को
राग अपना गा हमारा ज़िक्र मत कर ऐ रक़ीब
रात आख़िर है यहाँ आया नज़र आसार-ए-सुब्ह
फूलों की सेज दोस्त की ख़ातिर 'मुहिब' बिछाओ
निकालूँ दिल से मैं नाले की किस तरह आवाज़
नक़्काश-ए-अज़ल ने तो सर-ए-काग़ज़-ए-बाद आह
न तय एक रकअत की मंज़िल हुई
न कीजे वो कि मियाँ जिस से दिल कोई हो मलूल
'मुहिब' तुम बुत-परस्ती को न छोड़ो
मैं हूँ और साक़ी हो और हों रास ओ चुप ये वो बहम
मय-कदे में मस्त हैं और शोर उन का हाव-हू
कुछ न देखा किसी मकान में हम
किया है क़त्अ रिश्ता सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार का हम ने
ख़त का ये जवाब आया कि क़ासिद गया जी से
काश हम नाकाम भी काम आएँ तेरे इश्क़ में