वक़्त बोसे के मिरा मुँह उस के लब से जूँ जुड़ा
वक़्त बोसे के मिरा मुँह उस के लब से जूँ जुड़ा
गर्द-ए-ग़म हुई दिल में मीठी जैसे शक्कर का पुड़ा
बे-ज़िया सूरज के फिरने से हो जैसे आइना
नूर-ए-जाँ दिल से गया जूँ उस का रुख़ मुझ से मुड़ा
क्या बला पथराव थीं उस संग-दिल की गालियाँ
ले गया सारा था शीशा दिल का में लियाया तुड़ा
बाग़ में जावे वो वहशी-चश्म अगर मस्त-ए-शराब
नर्गिस उस ऊपर निसार-ए-सीम-ओ-ज़र देवे उड़ा
इन लबों के बोसे के लालच में जलता है बहिश्त
सुन ले 'उज़लत' कान धर कहता है हुक़्क़ा गुड़गुड़ा
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