न हो क्यूँ शोर दिल की बाँसुली में
मलाहत का सलोना कान पहुँचा
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जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
दिल तलबगार-ए-नाज़-ए-मह-वश है
गुल हुए ग़र्क़ आब-ए-शबनम में
मैं आशिक़ी में तब सूँ अफ़्साना हो रहा हूँ
याद करना हर घड़ी तुझ यार का
देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का
चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
छुपा हूँ मैं सदा-ए-बाँसुली में
अगर गुलशन तरफ़ वो नौ-ख़त-ए-रंगीं-अदा निकले
ऐ नूर-ए-जान-ओ-दीदा तिरे इंतिज़ार में
फिर मेरी ख़बर लेने वो सय्याद न आया