जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
उसे ज़िंदगी क्यूँ न भारी लगे
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सोहबत-ए-ग़ैर मूं जाया न करो
फिर मेरी ख़बर लेने वो सय्याद न आया
दिल-ए-उश्शाक़ क्यूँ न हो रौशन
शग़्ल बेहतर है इश्क़-बाज़ी का
जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ
याद करना हर घड़ी उस यार का
इश्क़ बेताब-ए-जाँ-गुदाज़ी है
सजन टुक नाज़ सूँ मुझ पास आ आहिस्ता आहिस्ता
इश्क़ में सब्र-ओ-रज़ा दरकार है
छुपा हूँ मैं सदा-ए-बाँसुली में
मुफ़लिसी सब बहार खोती है