हर ज़र्रा उस की चश्म में लबरेज़-ए-नूर है
देखा है जिस ने हुस्न-ए-तजल्ली बहार का
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गुल हुए ग़र्क़ आब-ए-शबनम में
आज तुझ याद ने ऐ दिलबर-ए-शीरीं-हरकात
सोहबत-ए-ग़ैर मूं जाया न करो
ऐ नूर-ए-जान-ओ-दीदा तिरे इंतिज़ार में
तुझ लब की सिफ़त लाल-ए-बदख़्शाँ सूँ कहूँगा
राह-ए-मज़मून-ए-ताज़ा बंद नहीं
देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का
तिरा लब देख हैवाँ याद आवे
किशन की गोपियाँ की नईं है ये नस्ल
आरज़ू-ए-चश्मा-ए-कौसर नईं
जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ