देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का
है मुताला मतला-ए-अनवार का
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तेरे लब के हुक़ूक़ हैं मुझ पर
आज तेरी भवाँ ने मस्जिद में
आज दिस्ता है हाल कुछ का कुछ
आरज़ू-ए-चश्मा-ए-कौसर नईं
मुफ़्लिसी सब बहार खोती है
छुपा हूँ मैं सदा-ए-बाँसुली में
सोहबत-ए-ग़ैर मूं जाया न करो
ऐ नूर-ए-जान-ओ-दीदा तिरे इंतिज़ार में
जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
आज तुझ याद ने ऐ दिलबर-ए-शीरीं-हरकात
किशन की गोपियाँ की नईं है ये नस्ल