चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
जा तमाशा देख उस रुख़्सार का
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सोहबत-ए-ग़ैर मूं जाया न करो
कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है
हुआ ज़ाहिर ख़त-ए-रू-ए-निगार आहिस्ता-आहिस्ता
राह-ए-मज़मून-ए-ताज़ा बंद नहीं
तिरा लब देख हैवाँ याद आवे
गुल हुए ग़र्क़ आब-ए-शबनम में
जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ
हुए हैं राम पीतम के नयन आहिस्ता-आहिस्ता
वो नाज़नीं अदा में एजाज़ है सरापा
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
किशन की गोपियाँ की नईं है ये नस्ल
दिल तलबगार-ए-नाज़-ए-मह-वश है