वहाँ हमारा कोई मुंतज़िर नहीं फिर भी
हमें न रोक कि घर जाना चाहते हैं हम
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कभी भूले से भी अब याद भी आती नहीं जिन की
आज तक जो भी हुआ उस को भुला देना है
हमें अंजाम भी मालूम है लेकिन न जाने क्यूँ
आरज़ू ले के कोई घर से निकलते क्यूँ हो
सिगरटें चाय धुआँ रात गए तक बहसें
उन्हें भी जीने के कुछ तजरबे हुए होंगे
क्या हिज्र में जी निढाल करना
ब-रंग-ए-नग़मा बिखर जाना चाहते हैं हम
बहुत दिन से कोई मंज़र बनाना चाहते हैं हम
कुछ दिन तिरा ख़याल तिरी आरज़ू रही
मुसल्ला रखते हैं सहबा-ओ-जाम रखते हैं
हमारे शहर में अब हर तरफ़ वहशत बरसती है