सब बिछड़े साथी मिल जाएँ मुरझाएँ चेहरे खिल जाएँ
सब चाक दिलों के सिल जाएँ कोई ऐसा काम करो 'वाली'
Parveen Shakir
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Mir Taqi Mir
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Allama Iqbal
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आरज़ू ले के कोई घर से निकलते क्यूँ हो
हमें अंजाम भी मालूम है लेकिन न जाने क्यूँ
मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
ग़म के रिश्तों को कभी तोड़ न देना 'वाली'
क्या हिज्र में जी निढाल करना
हम हार गए तुम जीत गए हम ने खोया तुम ने पाया
उन्हें भी जीने के कुछ तजरबे हुए होंगे
वो सूरतें जो बड़ी शोख़ हैं सजीली हैं
दिन भर ग़मों की धूप में चलना पड़ा मुझे
कुछ दिन तिरा ख़याल तिरी आरज़ू रही
ब-रंग-ए-नग़मा बिखर जाना चाहते हैं हम