मुसल्ला रखते हैं सहबा-ओ-जाम रखते हैं
फ़क़ीर सब के लिए इंतिज़ाम रखते हैं
Allama Iqbal
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दिन भर ग़मों की धूप में चलना पड़ा मुझे
उन्हें भी जीने के कुछ तजरबे हुए होंगे
हमारे शहर में अब हर तरफ़ वहशत बरसती है
मौज-ए-हवा आब-ए-रवाँ और ये ज़मीन ओ आसमाँ
यूँ तो हँसते हुए लड़कों को भी ग़म होता है
हम जो दिन-रात ये इत्र-ए-दिल-ओ-जाँ खींचते हैं
इश्क़ बिन जीने के आदाब नहीं आते हैं
हमें तेरे सिवा इस दुनिया में किसी और से क्या लेना-देना
इश्क़ की राह में यूँ हद से गुज़र मत जाना
फूल से मासूम बच्चों की ज़बाँ हो जाएँगे
सुनो ये ग़म की सियह रात जाने वाली है