इश्क़ की राह में यूँ हद से गुज़र मत जाना
हों घड़े कच्चे तो दरिया में उतर मत जाना
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कुछ दिन तिरा ख़याल तिरी आरज़ू रही
हम ख़ून की क़िस्तें तो कई दे चुके लेकिन
मैं जिस का जवाब न दे पाऊँ
बहुत दिन से कोई मंज़र बनाना चाहते हैं हम
क्या हिज्र में जी निढाल करना
वहाँ हमारा कोई मुंतज़िर नहीं फिर भी
हम जो दिन-रात ये इत्र-ए-दिल-ओ-जाँ खींचते हैं
मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
इस तरह रोज़ हम इक ख़त उसे लिख देते हैं
मौज-ए-हवा आब-ए-रवाँ और ये ज़मीन ओ आसमाँ
हम अपने-आप पे भी ज़ाहिर कभी दिल का हाल नहीं करते