इश्क़ बिन जीने के आदाब नहीं आते हैं
'मीर' साहब ने कहा है कि मियाँ इश्क़ करो
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भूले-बिसरे हुए ग़म याद बहुत करता है
हम ख़ून की क़िस्तें तो कई दे चुके लेकिन
जिन की यादें हैं अभी दिल में निशानी की तरह
छतरी लगा के घर से निकलने लगे हैं हम
हमें अंजाम भी मालूम है लेकिन न जाने क्यूँ
सुनो ये ग़म की सियह रात जाने वाली है
आज तक जो भी हुआ उस को भुला देना है
इश्क़ की राह में यूँ हद से गुज़र मत जाना
सिगरटें चाय धुआँ रात गए तक बहसें
मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
फिर वही रेग-ए-बयाबाँ का है मंज़र और हम