इस तरह रोज़ हम इक ख़त उसे लिख देते हैं
कि न काग़ज़ न सियाही न क़लम होता है
Habib Jalib
Allama Iqbal
Jaun Eliya
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Gulzar
Mohsin Naqvi
Rahat Indori
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सुनो ये ग़म की सियह रात जाने वाली है
मैं जब छोटा सा था काग़ज़ पे ये मंज़र बनाता था
आरज़ू ले के कोई घर से निकलते क्यूँ हो
हम अपने-आप पे भी ज़ाहिर कभी दिल का हाल नहीं करते
कभी भूले से भी अब याद भी आती नहीं जिन की
मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
आज तक जो भी हुआ उस को भुला देना है
फूल से मासूम बच्चों की ज़बाँ हो जाएँगे
सब बिछड़े साथी मिल जाएँ मुरझाएँ चेहरे खिल जाएँ
वो सूरतें जो बड़ी शोख़ हैं सजीली हैं
मौज-ए-हवा आब-ए-रवाँ और ये ज़मीन ओ आसमाँ