हम ख़ून की क़िस्तें तो कई दे चुके लेकिन
ऐ ख़ाक-ए-वतन क़र्ज़ अदा क्यूँ नहीं होता
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हमें अंजाम भी मालूम है लेकिन न जाने क्यूँ
इश्क़ की राह में यूँ हद से गुज़र मत जाना
इस तरह रोज़ हम इक ख़त उसे लिख देते हैं
मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
वहाँ हमारा कोई मुंतज़िर नहीं फिर भी
मैं जब छोटा सा था काग़ज़ पे ये मंज़र बनाता था
हम जो दिन-रात ये इत्र-ए-दिल-ओ-जाँ खींचते हैं
कभी भूले से भी अब याद भी आती नहीं जिन की
क्या हिज्र में जी निढाल करना
दिन भर ग़मों की धूप में चलना पड़ा मुझे
यूँ तो हँसते हुए लड़कों को भी ग़म होता है
हमें तेरे सिवा इस दुनिया में किसी और से क्या लेना-देना