ग़म के रिश्तों को कभी तोड़ न देना 'वाली'
ग़म ख़याल-ए-दिल-ए-ना-शाद बहुत करता है
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वहाँ हमारा कोई मुंतज़िर नहीं फिर भी
इस तरह रोज़ हम इक ख़त उसे लिख देते हैं
मैं जब छोटा सा था काग़ज़ पे ये मंज़र बनाता था
हमें अंजाम भी मालूम है लेकिन न जाने क्यूँ
इश्क़ की राह में यूँ हद से गुज़र मत जाना
वो सूरतें जो बड़ी शोख़ हैं सजीली हैं
उन्हें भी जीने के कुछ तजरबे हुए होंगे
जिन की यादें हैं अभी दिल में निशानी की तरह
छतरी लगा के घर से निकलने लगे हैं हम
जी का जंजाल है इश्क़ मियाँ क़िस्सा ये तमाम करो 'वाली'
तुझ से बिछड़ के यूँ तो बहुत जी उदास है
सब बिछड़े साथी मिल जाएँ मुरझाएँ चेहरे खिल जाएँ