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हम जो दिन-रात ये इत्र-ए-दिल-ओ-जाँ खींचते हैं - वाली आसी कविता - Darsaal

हम जो दिन-रात ये इत्र-ए-दिल-ओ-जाँ खींचते हैं

हम जो दिन-रात ये इत्र-ए-दिल-ओ-जाँ खींचते हैं

नफ़अ' कम करते हैं ऐ यार ज़ियाँ खींचते हैं

सोचने के लिए मौज़ू-ए-सुख़न कोई नहीं

सुब्ह से शाम तलक सिर्फ़ धुआँ खींचते हैं

मैं ने मुद्दत से कोई सच भी नहीं बोला है

फिर मुझे दार पे क्यूँ अहल-ए-जहाँ खींचते हैं

अब भी रहते हैं बहुत ऐसे बहादुर जो यहाँ

दूध पीते हुए बच्चों पे कमाँ खींचते हैं

वो मुसाहिब जो ज़बाँ खोलते डरते थे कभी

अब वही मेरे बुज़ुर्गों की ज़बाँ खींचते हैं

मेरे क़ातिल मुझे पहचान गए हैं शायद

वर्ना क्यूँ जिस्म से यूँ नोक-ए-सिनाँ खींचते हैं

रहगुज़ारों की हवा का तो मैं जाँ-दादा न था

क्यूँ मिरी ना'श को गलियों में यहाँ खींचते हैं

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In Hindi By Famous Poet Wali Aasi. is written by Wali Aasi. Complete Poem in Hindi by Wali Aasi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.