ऐ नसीम-ए-सहरी हम तो हवा होते हैं
ऐ नसीम-ए-सहरी हम तो हवा होते हैं
दम जो घुटता है मोहब्बत में ख़फ़ा होते हैं
हम फ़क़ीराना ग़ज़ल कहते हैं ऐ शाह-ए-जहाँ
ख़ैर हो ख़ैर हो मसरूफ़-ए-दुआ होते हैं
बहर-ए-आलम में ये इंसान हैं मानिंद-ए-हबाब
दम में बनते हैं ये दम-भर में फ़ना होते हैं
हम ग़रीबों को न इस बज़्म से उठवा ऐ बुत
सोहबत-ए-आम में ख़ासान-ए-ख़ुदा होते हैं
हम में और उन में बढ़ा राब्ता 'अख़्तर' इतना
हम पे वो सदक़े हैं हम उन पे फ़िदा होते हैं
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