क़स्में वा'दे रह जाते हैं
इंसाँ आधे रह जाते हैं
ख़त से ख़ुशबू उड़ जाती है
काग़ज़ सारे रह जाते हैं
रब की मर्ज़ी ही चलती है
और इरादे रह जाते हैं
लब पर उँगली रख लेती हो
हम चुप साधे रह जाते हैं
उस के रोब-ए-हुस्न के आगे
मारे बाँधे रह जाते हैं
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दम-ए-विसाल ये हसरत रही रही न रही
गिले शिकवे के दफ़्तर आ गए तुम
मोहब्बत के तआ'क़ुब में थकन से चूर होने तक
मिरे अंदर कहीं पर खो गई है
होंट मसरूफ़-ए-दुआ आँख सवाली क्यूँ है
इक मोहब्बत का फ़ुसूँ था सो अभी बाक़ी है
क्या बताएँ उस के बिन कैसे ज़िंदगी कर ली
अपने अंदाज़ में औरों से जुदा लगते हो
'सानी' फ़क़त तुम्हारा लिखा जिन ख़ुतूत पर
अच्छा हुआ कि इश्क़ में बर्बाद हो गए