क्यूँ ग़म्ज़ा-ए-जाँ-सिताँ को ख़ंजर न कहें
क्यूँ इश्वा-ए-दिल-नशीं को नश्तर न कहें
कहते हो कि कुछ शान में मेरी न कहो
यूँ ज़ुल्म करो और सितमगर न कहें
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तिरे आशुफ़्ता से क्या हाल-ए-बेताबी बयाँ होगा
देखना वो गिर्या-ए-हसरत-मआल आ ही गया
ज़िंदगी अपनी किसी तरह बसर करनी है
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
आँख में जल्वा तिरा दिल में तिरी याद रहे
निशान-ए-मंज़िल-ए-जानाँ मिले मिले न मिले
और इशरत की तमन्ना क्या करें
दिल तोड़ दिया तुम ने मेरा अब जोड़ चुके तुम टूटे को
मुझ से जो न मिलते वो कोई रात न थी
कुछ समझ कर ही हुआ हूँ मौज-ए-दरिया का हरीफ़
मिरे तो दिल में वही शौक़ है जो पहले था
दर्द का मेरे यक़ीं आप करें या न करें