ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
हमारी बेकसी को देख कर सारा जहाँ रोया
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ख़ाक में किस दिन मिलाती है मुझे
ज़माना भी मुझ से ना-मुवाफ़िक़ मैं आप भी दुश्मन-ए-सलामत
यहाँ हर आने वाला बन के इबरत का निशाँ आया
मैं ने माना काम है नाला दिल-ए-नाशाद का
उठा लेने से तो दिल के रहा मैं
मज़ा आता अगर गुज़री हुई बातों का अफ़्साना
जो गिरफ़्तार तुम्हारा है वही है आज़ाद
लबरेज़-ए-हक़ीक़त गो अफ़साना-ए-मूसा है
किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है
दोनों ने बढ़ाई रौनक़-ए-हुस्न
मुझ से जो न मिलते वो कोई रात न थी
बज़्म में उस बे-मुरव्वत की मुझे