ज़माना भी मुझ से ना-मुवाफ़िक़ मैं आप भी दुश्मन-ए-सलामत
तअज्जुब इस का है बोझ क्यूँकर मैं ज़िंदगी का उठा रहा हूँ
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मुझ से जो न मिलते वो कोई रात न थी
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
बेजा है तिरी जफ़ा का शिकवा
तेरा मरना इश्क़ का आग़ाज़ था
दिल को हम कब तक बचाए रखते हर आसेब से
बहार आई है आराइश-ए-चमन के लिए
उठा लेने से तो दिल के रहा मैं
ऐ अहल-ए-वफ़ा ख़ाक बने काम तुम्हारा
तल्ख़ी-कश-ए-नौमीदी-ए-दीदार बहुत हैं
तिरे आशुफ़्ता से क्या हाल-ए-बेताबी बयाँ होगा
मैं ने माना काम है नाला दिल-ए-नाशाद का
संग-ए-तिफ़्लाँ फ़िदा-ए-सर न हुआ