ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगा
अपनी भी तबीअत है बहलती ही रहेगी
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अज़ीज़ अगर नहीं रखता न रख ज़लील ही रख
किसी तरह दिन तो कट रहे हैं फ़रेब-ए-उम्मीद खा रहा हूँ
शौक़ ने इशरत का सामाँ कर दिया
तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है
गर्दन झुकी हुई है उठाते नहीं हैं सर
तिरे आशुफ़्ता से क्या हाल-ए-बेताबी बयाँ होगा
जान उस की अदाओं पर निकलती ही रहेगी
हम ने आलम से बेवफ़ाई की
वफ़ा-ए-दोस्ताँ कैसी जफ़ा-ए-दुश्मनाँ कैसी
क़द्रदानी की कैफ़ियत मालूम
मिरे तो दिल में वही शौक़ है जो पहले था
उठा लेने से तो दिल के रहा मैं