ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
तबीअत जब न हो हाज़िर तो फिर मज़मून क्या निकले
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संग-ए-तिफ़्लाँ फ़िदा-ए-सर न हुआ
दोनों ने किया है मुझ को रुस्वा
तीर-ए-नज़र ने ज़ुल्म को एहसाँ बना दिया
कुछ समझ कर ही हुआ हूँ मौज-ए-दरिया का हरीफ़
पैमान-ए-वफ़ा-ए-यार हैं हम
जुदा करेंगे न हम दिल से हसरत-ए-दिल को
बढ़ चली है बहुत हया तेरी
बढ़ा हंगामा-ए-शौक़ इस क़दर बज़्म-ए-हरीफ़ाँ में
किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है
बज़्म में उस बे-मुरव्वत की मुझे
मज़ा आता अगर गुज़री हुई बातों का अफ़्साना
सच कहा है कि ब-उम्मीद है दुनिया क़ाइम