'वहशत' उस बुत ने तग़ाफ़ुल जब किया अपना शिआर
काम ख़ामोशी से मैं ने भी लिया फ़रियाद का
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इस ज़माने में ख़मोशी से निकलता नहीं काम
आप अपना रू-ए-ज़ेबा देखिए
अभी होते अगर दुनिया में 'दाग़'-ए-देहलवी ज़िंदा
किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है
मेरा मक़्सद कि वो ख़ुश हों मिरी ख़ामोशी से
बढ़ा हंगामा-ए-शौक़ इस क़दर बज़्म-ए-हरीफ़ाँ में
ख़ाक में किस दिन मिलाती है मुझे
क़द्रदानी की कैफ़ियत मालूम
तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
मजाल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत न एक बार हुई
संग-ए-तिफ़्लाँ फ़िदा-ए-सर न हुआ