उठा लेने से तो दिल के रहा मैं
तू अब ज़ालिम वफ़ा कर या जफ़ा कर
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ख़ाक में किस दिन मिलाती है मुझे
दोनों ने बढ़ाई रौनक़-ए-हुस्न
और इशरत की तमन्ना क्या करें
क़द्रदानी की कैफ़ियत मालूम
यही है इश्क़ की मुश्किल तो मुश्किल आसाँ है
मुझ से जो न मिलते वो कोई रात न थी
ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगा
सुरूर-अफ़्ज़ा हुई आख़िर शराब आहिस्ता आहिस्ता
दिल के कहने पे चलूँ अक़्ल का कहना न करूँ
मुरव्वत का पास और वफ़ा का लिहाज़
दिल तोड़ दिया तुम ने मेरा अब जोड़ चुके तुम टूटे को
मैं ने माना काम है नाला दिल-ए-नाशाद का