तुम्हारा मुद्दआ ही जब समझ में कुछ नहीं आया
तो फिर मुझ पर नज़र डाली ये तुम ने मेहरबाँ कैसी
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ऐ मिशअल-ए-उम्मीद ये एहसान कम नहीं
बढ़ चली है बहुत हया तेरी
ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
गर्दन झुकी हुई है उठाते नहीं हैं सर
यही है इश्क़ की मुश्किल तो मुश्किल आसाँ है
लबरेज़-ए-हक़ीक़त गो अफ़साना-ए-मूसा है
किस तरह हुस्न-ए-ज़बाँ की हो तरक़्क़ी 'वहशत'
बज़्म में उस बे-मुरव्वत की मुझे
ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
तिरे आशुफ़्ता से क्या हाल-ए-बेताबी बयाँ होगा