तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है
मैं हूँ और रंज है और गोशा-ए-तन्हाई है
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शौक़ ने इशरत का सामाँ कर दिया
नालों से अगर मैं ने कभी काम लिया है
तेरा मरना इश्क़ का आग़ाज़ था
दर्द का मेरे यक़ीं आप करें या न करें
यही है इश्क़ की मुश्किल तो मुश्किल आसाँ है
'वहशत' उस बुत ने तग़ाफ़ुल जब किया अपना शिआर
तल्ख़ी-कश-ए-नौमीदी-ए-दीदार बहुत हैं
क्यूँ ग़म्ज़ा-ए-जाँ-सिताँ को ख़ंजर न कहें
ख़याल तक न किया अहल-ए-अंजुमन ने ज़रा
जो गिरफ़्तार तुम्हारा है वही है आज़ाद
किसी तरह दिन तो कट रहे हैं फ़रेब-ए-उम्मीद खा रहा हूँ
बढ़ चली है बहुत हया तेरी