था क़फ़स का ख़याल दामन-गीर
उड़ सके हम न बाल ओ पर ले कर
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कुछ समझ कर ही हुआ हूँ मौज-ए-दरिया का हरीफ़
सुरूर-अफ़्ज़ा हुई आख़िर शराब आहिस्ता आहिस्ता
ज़ब्त की कोशिश है जान-ए-ना-तवाँ मुश्किल में है
क्या है कि आज चलते हो कतरा के राह से
ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
ख़याल तक न किया अहल-ए-अंजुमन ने ज़रा
दोनों ने बढ़ाई रौनक़-ए-हुस्न
किसी सूरत से उस महफ़िल में जा कर
नहीं कि इश्क़ नहीं है गुल ओ समन से मुझे
जान उस की अदाओं पर निकलती ही रहेगी
बज़्म में उस बे-मुरव्वत की मुझे
नालों से अगर मैं ने कभी काम लिया है