सीने में मिरे दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़-ए-नबी है
इक गौहर-ए-नायाब मिरे हाथ लगा है
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ज़िंदगी अपनी किसी तरह बसर करनी है
दिल तोड़ दिया तुम ने मेरा अब जोड़ चुके तुम टूटे को
मेरा मक़्सद कि वो ख़ुश हों मिरी ख़ामोशी से
ऐ मिशअल-ए-उम्मीद ये एहसान कम नहीं
ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
जो तुझ से शोर-ए-तबस्सुम ज़रा कमी होगी
वो काम मेरा नहीं जिस का नेक हो अंजाम
यही है इश्क़ की मुश्किल तो मुश्किल आसाँ है
किसी तरह दिन तो कट रहे हैं फ़रेब-ए-उम्मीद खा रहा हूँ
बहार आई है आराइश-ए-चमन के लिए
तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले